ये दिल मिरा मिरे पहलू से अनक़रीब चला शिकस्त खा के ग़मों से मिरा रक़ीब चला जब उन की बज़्म से उठ कर कोई ग़रीब चला फ़ज़ाएँ चीख़ उठीं हुस्न का नक़ीब चला वो फिर समेट के बाँहों में काएनात का रंग गले सुराही से मिल कर मिरा हबीब चला जहाँ जहाँ मुतसादिम हुई जुनूँ से ख़िरद बड़ी अदा से वहाँ ख़ामा-ए-अदीब चला छलकने वाला है शायद मिरी हयात का जाम ये लड़खड़ाता हुआ क्यों मिरा तबीब चला मसाइल-ए-ग़म-ए-हस्ती को और उलझाने वो 'होश' जानिब-ए-मंज़िल कोई ख़तीब चला