तल्ख़ी-ए-ज़हर अभी शामिल-ए-जाँ रहने दे मुझ पे जो गुज़री है कुछ उस का निशाँ रहने दे ये बुझे जाम ये रोई हुई शमएँ न हटा चंद घड़ियाँ ख़लिश-ए-ऐश-ए-गराँ रहने दे देख उजड़े हुए मंज़र अभी दिल-सोज़ नहीं और कुछ रोज़ यूँही रंग-ए-ख़िज़ाँ रहने दे कुछ तो रौशन हों मिरे जिस्म की तारीक रगें मौजा-ए-ख़ूँ पे कोई शम-ए-रवाँ रहने दे वो तिरे दर्द की गहराई कहीं देख न ले नौहा-ए-ज़ख़्म को महरूम-ए-ज़बाँ रहने दे चंद गुमनाम सी यादों की महक है दिल में इस ख़राबे में ये गुलहा-ए-ख़िज़ाँ रहने दे