टलने के नहीं अहल-ए-वफ़ा ख़ौफ़-ए-ज़ियाँ से ये बहस मगर कौन करे अहल-ए-ज़माँ से रग रग में रवाँ बहर-ए-फ़ुग़ाँ चढ़ गया लेकिन वीरानी-ए-जाँ कम तो हुई ज़िक्र-ए-बुताँ से रोग़न न सफ़ेदी न मरम्मत से मिलेगा इक पास-ए-मरातिब कि गया सब के मकाँ से आज़ार-ओ-मुसीबत से इलाक़ा है पुराना रिश्ता है क़दीमी मिरा फ़रियाद-ओ-फ़ुग़ाँ से घाव भी ज़रा ताक के यारों ने लगाए कुछ दिल को भी निस्बत थी बहुत नोक-ए-सिनाँ से इक गोशा-ए-दिल उस को दिखाने का नहीं ये महरम नहीं करना उसे इक सिर्र-ए-निहाँ से सरसब्ज़ रहे ज़ख़्म-ए-जुनूँ जिस की बदौलत इक रब्त तो क़ाएम है अदू-ए-दिल-ओ-जाँ से