वाक़िफ़ हैं ख़ू-ए-यार से देखे चलन तमाम यक आन ग़म्ज़ा-ज़न कभी शमशीर-ज़न तमाम किस सोज़-ए-अंदरून ने तुझ को किया फ़िगार किस शख़्स वास्ते है दिला ये सुख़न तमाम गुल-रंग-ओ-लाला-फ़ाम-ओ-शफ़क़-ताब-ओ-ख़ुश-इज़ार यक माह-ए-नौ से माँद हुए सीम-तन तमाम सो नामा-बर को काहे थमाएँ पयाम हम मस्तूर है निगाह में अपना सुख़न तमाम रक्खा है सैंत सैंत तिरा दर्द दोस्ता गरचे नक़ब लगाया किए राहज़न तमाम बस ऐ जमाल-ए-यार तिरा इल्तिफ़ात था जों वा हुआ निगाह पे बाग़-ए-अदन तमाम हाए वो पल न रोक सके अश्क-ए-लाला-गूँ अहवाल-ए-शौक़ जान गई अंजुमन तमाम