तलवार ग़र्क़-ए-ख़ूँ है आँखें गुलाबियाँ हैं देखें तो तेरी कब तक ये बद-शराबियाँ हैं जब ले नक़ाब मुँह पर तब दीद कर कि क्या क्या दर-पर्दा शोख़ियाँ हैं फिर बे-हिजाबियाँ हैं चाहे है आज हूँ मैं हफ़्त-आसमाँ के ऊपर दिल के मिज़ाज में भी कितनी शिताबियाँ हैं जी बिखरे दिल ढहे है सर भी गिरा पड़े है ख़ाना-ख़राब तुझ बिन क्या क्या ख़राबियाँ हैं मेहमान 'मीर' मत हो ख़्वान-ए-फ़लक पे हरगिज़ ख़ाली ये मेहर-ओ-मह की दोनों रिकाबियाँ हैं