तलवार तिरी रवाँ बहुत है थोड़ा भी तो इम्तिहाँ बहुत है कुछ आह के हौसले निकलते नीचा मगर आसमाँ बहुत है दामन पे तिरे लगी रही ख़ाक इतना ही मिरा निशाँ बहुत है दिल तंग सही पर ऐ तमन्ना मर रहने को ये मकाँ बहुत है इक कोह-ए-गिराँ है इश्क़ लेकिन इस को दिल-ए-ना-तवाँ बहुत है उल्फ़त में नहीं है सब्र नायाब ये चीज़ मगर गिराँ बहुत है बातिन की ख़बर ख़ुदा को है 'दाग़' ज़ाहिर में वो मेहरबाँ बहुत है