तमाम जिस्म की परतें जुदा जुदा करके जिए चले गए क़िस्तों में लोग मर मर के हर एक मौज मिरे पाँव छू के लौट गई कहीं ये ख़्वाब न हों नींद के समुंदर के मिरी कमान में हैं ना-तवानियाँ मेरी ख़ुद अपनी ज़ात पे हैं तीर मेरे तेवर के अजब हसीन ख़यालों को ज़ेहन पालता है तराशता है सनम भी तो संग मरमर के भटक रही है कहाँ रूह सोचना होगा निकल गई थी कभी क़ैद-ए-जिस्म से डर के मैं हादसात को हर गाम पर बुलाता हूँ बहुत शिकस्ता हैं दीवार-ओ-दर मुक़द्दर के 'फ़ज़ा'! ज़रूर कोई ताज़ा गुल खिलाएगा क़लम ने ख़ून मिरा पी लिया है जी भर के