तमाम ख़लियों में अक्सर सुनाई देता है हर इक जहान में महशर सुनाई देता है जो छू के देखूँ तो गर्दिश की तह में गर्दिश है धरूँ जो कान तो महवर सुनाई देता है हज़ार मीलों बिछी इर्तिक़ा की मिट्टी पर बदन में अब भी समुंदर सुनाई देता है लचकती रात में सय्यार्गां की चाप सुनो जो मुझ में जज़्ब है बाहर सुनाई देता है ज़मीन फैल गई है हमारी रूह तलक जहाँ का शोर अब अंदर सुनाई देता है ज़बाँ के ग़ार से पहुँचे सुकूत तक तो अब अजीब लहजों में मंज़र सुनाई देता है तमद्दुनों के हर आहंग का तज़ाद 'रियाज़' जो दूर जाऊँ तो बेहतर सुनाई देता है