तमाम उम्र हो न पाई वो नज़र अपनी रह-ए-हयात में बनती जो हम-सफ़र अपनी हज़ार संग-ए-गराँ ज़िंदगी की राह में थे न जाने कैसे जहाँ में हुई बसर अपनी ज़मीं पे ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ सई-ए-राएगाँ ठहरा फ़लक पे जा के हुई आह बे-असर अपनी किसी रिसाले में शाए हो जैसे कोई ग़ज़ल कुछ इस तरह से हुई बात मुश्तहर अपनी मुझे शिकायत-ए-अग़्यार से ग़रज़ क्यों हो हँसी उड़ाई है यारों ने ख़ास कर अपनी वो क्या किसी को मुलाक़ात का शरफ़ देगा जो ख़ैरियत भी न लिख पाए दो सतर अपनी मिला न चैन तिरी जुस्तुजू में सारा दिन लगी न आँख तिरे ग़म में रात भर अपनी सुराग़-ए-मंज़िल-ए-इरफ़ाँ न मिल सकेगा कभी ग़लत-रवी से हज़ीमत है सर-बसर अपनी गुलों का ख़ून था रंग-ए-बहार के पीछे फ़रेब खा न सकी चश्म-ए-मो'तबर अपनी हवा-ए-शौक़ के पीछे ग़ुबार बन के उड़ी बिसात भूल गई हस्ती-ए-बशर अपनी मैं इंकिशाफ़ करूँ भी तो किस तरह से 'सबा' तवील राज़ है और उम्र मुख़्तसर अपनी