वही कौन-ओ-मकाँ अपना मता-ए-ज़िंदगी अपनी जहाँ तक ले के जाती है मुझे आवारगी अपनी अगर रुस्वाइयों तक बात होती तो ग़नीमत थी तमाशा बन गई है आज हर-सू ज़िंदगी अपनी पलट कर मैं ने दोबारा कभी वो दर नहीं देखा जहाँ रुस्वा हुइ इक बार भी दीवानगी अपनी मुक़ाबिल है मिरे फ़ित्नागरी अब तो ख़ुदा जाने कहाँ तक साथ देती है मिरा शाइस्तगी अपनी इसी उम्मीद पर आँखें दर-ए-जानाँ को चूमे हैं कि इक दिन रंग लाएगी अदा-ए-बंदगी अपनी चलन मालूम है दुनिया का मुझ को भी मगर 'तश्ना' मुझे ख़ामोश कर देती है अक्सर सादगी अपनी