तमाम उम्र नमक-ख़्वार थे ज़मीं के हम वफ़ा सरिश्त में थी हो रहे यहीं के हम निकल के रूह डंवाडोल हो न जाए कहीं हज़ार हैफ़ न दुनिया के हैं न दीं के हम नज़र उठा के न देखा किसी तरफ़ ता-उम्र रहे ख़याल में इक चश्म-ए-सुर्मा-गीं के हम ज़मीं छुड़ाई गई हम से जब बना कर ख़ाक यहाँ पे क्या न रहे ऐ सबा कहीं के हम यहाँ मकाँ है तो क्यूँ आसमाँ की सैर करें मकीं हैं 'शाद' अज़ल से इसी ज़मीं के हम ज़माना 'शाद' हमें क्यूँ भुला नहीं देता न हजू के न सज़ा-वार आफ़रीं के हम