तमाशा अपना सर-ए-रह-गुज़र बनाया जाए जो राहज़न है उसे राहबर बनाया जाए सलीक़ा ये भी तो है सर उठा के जीने का जो हम में ऐब हैं इन को हुनर बनाया जाए तमाम उम्र इसी काम में रहे मसरूफ़ हर एक दिल में मोहब्बत का दर बनाया जाए ख़ुशी का क्या है हमेशा फ़रेब देती है तो अपने ग़म को ही अब मो'तबर बनाया जाए जहाँ न पड़ सके साया भी कोई नफ़रत का मोहब्बतों का इक ऐसा नगर बनाया जाए अभी नुक़ूश नुमायाँ नहीं हुए हैं मिरे तराश कर मुझे बार-ए-दिगर बनाया जाए कोई नहीं अभी तय्यार साथ चलने को सो अपने साए को ही हम-सफ़र बनाया जाए सब अपनी ज़ात में गुम हैं ये सोच कर 'नायाब' पराए दर्द को क्यूँ दर्द-ए-सर बनाया जाए