तमाशा हो जो दिल में अक्स-ए-रू-ए-यार हो पैदा कि अपना इश्क़ का इक महरम-ए-असरार हो पैदा रुख़-ओ-गेसू दिखा कर नाज़ से कहता है वो दिलबर कोई काफ़िर हो पैदा और कोई दीं-दार हो पैदा तुम्हारी सिल्क-ए-दंदाँ के तसव्वुर ने रुलाया है न क्यूँ अश्कों से मेरे गौहर-ए-शहवार हो पैदा कहीं मुँह फेरता है जाँ-निसार-ए-इश्क़ मरने से फ़िदा वो जान कर ले तुझ पे गर सौ बार हो पैदा अगर गिर्या-कुनाँ सरशार-ए-उल्फ़त हूँ तो ऐ साक़ी उन्हीं के आँसुओं से बादा-ए-गुलनार हो पैदा मुदावा ग़ैर-मुमकिन है तिरे बीमार-ए-उलफ़त का जो इक आज़ार अच्छा हो तो इक आज़ार हो पैदा 'जमीला' नावक-ए-मिज़्गान-ए-दिल-बर से जो हो ज़ख़्मी न क्यूँ उस की लहद पर नर्गिस-ए-बीमार हो पैदा