तन्हा कब हूँ मेरे संग परिंदे हैं सपने भी तो रंगा-रंग परिंदे हैं मुझ को बैठा देख के जुमले कसते थे मेरे उड़ने पर अब दंग परिंदे हैं फिर से काबा इक दुश्मन की ज़द पर है फिर लश्कर से महव-ए-जंग परिंदे हैं तेरे साथ हैं शहर की पुख़्ता दीवारें मैं साधू हूँ मेरे संग परिंदे हैं तेरे लहजे की तस्वीरी शक्लें हैं जितने भी उड़ते ख़ुश-रंग परिंदे हैं पिंजरों की बोहतात गवाही देती है इंसानों के हाथों तंग परिंदे हैं सब कुछ है बस तेरी एक कमी सी है बादल पानी धूप पतंग परिंदे हैं बे-ख़ुद सी वो हर-सू उड़ती फिरती है उस के 'आसिफ़' सारे अंग परिंदे हैं