तन्हा उदास शब के सिवा कोई भी न था सन्नाटा आया झाँक के घर में चला गया बे-कैफ़ियों की झील में बे-हिस से कुछ परिंद बैठे थे थोड़ी देर मगर इस से क्या हुआ चेहरों के मैले जिस्मों के जंगल थे हर जगह उन में कहीं भी कोई मगर आदमी न था वो अजनबी यही तो वो कहता था चीख़ कर मेरा अधूरा ख़्वाब कहीं मुझ से खो गया छन छन के आ रही है किधर से ये रौशनी मेरी फ़सील-ए-दर्द की रिफ़अत को क्या हुआ