तन्हाई का ज़ख़्म था कैसा सन्नाटों ने भरा नमक ऐसा छलका ज़ख़्म कि सारा पलकों से बह गया नमक हलवे मांडे सब मीठे थे खा पी कर वो भूल गए तल्ख़ अनासिर का संगम था रग रग में रह गया नमक ज़ख़्मों के गुल क्या धोएगी रुत रसिया बरसात जहाँ हर मौसम हर आन बिखेरे चलती फिरती हवा नमक अंगड़ाई की मेहराबों में रंग-ए-धनक वो क्यूँ न भरें जिन की हर हर बात रसीली जिन की हर हर अदा नमक लेख लिफ़ाफ़े से बाहर था सुर्ख़ी थी मज़मून ब-कफ़ मसक गईं मीठी मुस्कानें होंट खुले और गिरा नमक जाने क्या क्या अक्स उगलते खुल कर धुँदले आईने अटे हुए ज़ख़्मों पर 'राही' कौन छिड़कता खरा नमक