बारहा दी है सदा दिल ने ख़ुदा गुम-सुम है हाथ फैलाए कई बार ख़ुदा गुम-सुम है देने वालों को बिना माँगे दिया है उस ने माँगने वालों से ले कर भी ख़ुदा गुम-सुम है मुँह में हो ख़ाक मिरे शिकवा-कुनाँ लगता हूँ शिकवा भी करता हूँ तो दिल की फ़ज़ा गुम-सुम है है ख़मोशी भी क़यामत सी कहीं शोर नहीं सब चराग़ों को बुझा कर भी हवा गुम-सुम है पाँव जकड़े हुए बैठी है ज़मीं यारों के वक़्त आया है तो यारों की वफ़ा गुम-सुम है अब गुज़रती है ख़ुदाओं पे क़यामत कैसी दर पे बैठा है तिरे और गदा गुम-सुम है कैसे कह दूँ कि बिछड़ना है मुनासिब 'रामिज़' सोचने भी दो मिरे दिल को ज़रा गुम-सुम है