तंज़ करता है आइना मुझ पर वक़्त कैसा ये आ पड़ा मुझ पर एक हल्की सी ज़र्ब मारी थी शहर सारा ही आ पड़ा मुझ पर ऐसा लगने लगा है अब मुझ को हर मुसीबत की इंतिहा मुझ पर जान दे कर ही हो सका है अदा कई सदियों का क़र्ज़ था मुझ पर सूरा-ए-नास पढ़ता रहता हूँ कोई जादू न चल सका मुझ पर ढूँडने एक भी नहीं निकला सभी पढ़ते हैं फ़ातिहा मुझ पर उम्र गुज़री वफ़ा-शिआ'री में क़त्ल होना भी फ़र्ज़ था मुझ पर लोग करते गए करम पे करम क़र्ज़ बढ़ता चला गया मुझ पर चलता रहता हूँ बिन थके 'परवेज़' खुलता जाता है रास्ता मुझ पर