तनूर-ए-वक़्त की हिद्दत से डर गए हम भी मगर तपिश में तपे तो निखर गए हम भी जहाँ पहुँच के मुसाफ़िर के रुख़ बदलते हैं रह-ए-हयात के उस मोड़ पर गए हम भी जला दिया था सफ़ीना उतर के साहिल पर जुनून-ए-फ़त्ह में क्या क्या न कर गए हम भी जदीद रंग से मद्धम हुआ न रंग-ए-कुहन क़दीम रंग में वो रंग भर गए हम भी क़दम क़दम पे सितम सह के जी रहे थे जिसे उसी हयात की बाँहों में मर गए हम भी न कुछ जुनून-ए-तजस्सुस का पूछिए आलम कहाँ कहाँ से न 'कौसर' गुज़र गए हम भी