तार छेड़ूँ भी तो झंकार से महरूम रहूँ और जो मिज़राब से छू लूँ भी तो सम रोता है ज़ुल्म की जब कोई तारीख़ नहीं लिख सकता ख़ून हर साँस से बहता है सितम रोता है फ़न को फ़नकार का इनआ'म समझने वालो नक़्श-ए-मानी पे भी ज़ोलीदा रक़म रोता है कुछ मिरे दीदा-ए-पुर-आब पे मौक़ूफ़ नहीं उन के हाथों गुल-ए-शादाब का नम रोता है