तरब का रंग रुख़-ए-गुल पे आश्कार आया कली सी खिल गई जूँही वो गुल-एज़ार आया तड़प के जान निकल जाएगी अभी सय्याद न कहियो बाग़ में फिर मौसम-ए-बहार आया मिला मैं ख़ाक में मर मर के आह पर तो भी न बे-क़रारी-ए-दिल के तईं क़रार आया मिरी वफ़ा पे तुझे रोज़ शक था ऐ ज़ालिम ये सर ये तेग़ है ले अब तो ए'तिबार आया ये शौक़ देखो पस-ए-मर्ग भी 'तजल्ली' ने कफ़न में खोल दीं आँखें सुना जो यार आया