तस्वीर-ए-ना-मुकम्मल इक तिश्नगी का ख़ाका पर फड़फड़ा रहा है अन्क़ा मिरी सदा का सब क्यों दिखा रहे हैं मौहूम सी ख़राशें पूछा था सिर्फ़ मैं ने बीमार से दवा का दीवानगी नहीं जो छू छू के देखता हूँ आँखें ही अब मिली हैं अंधा था मैं सदा का हाथों को जाने कब से बस धोए जा रहा हूँ सादा से कैनवस पर साया सा है हवा का छेड़ो न इन रगों को शाख़ें ये फूल सी हैं मरहम न मिल सकेगा फिर ज़ख़्म-ए-नारवा का वहमों की सौ हैं शक्लें लकड़ी के एक घर में क्या क्या नहीं दिखाता ये रात का खटाका इक बे-दिमाग़ हाथी लश्कर से आ मिला है अब ये दिमाग़ होगा लश्कर के नक़्श-ए-पा का