तेरा हर राज़ छुपाए हुए बैठा है कोई ख़ुद को दीवाना बनाए हुए बैठा है कोई साक़ी-ए-बज़्म के मख़्सूस इशारों की क़सम जाम होंटों से लगाए हुए बैठा है कोई इस नुमाइश-गह-ए-आलम में कमी है अब तक अश्क आँखों में छुपाए हुए बैठा है कोई शब की देवी का सुकूत और ही कुछ कहता है फिर भी दो शमएँ जलाए हुए बैठा है कोई मेरी इक आरज़ू-ए-दीद का ए'जाज़ न पूछ मुँह को हाथों से छुपाए हुए बैठा है कोई याद भी तेरी इक आज़ार-ए-मुसलसल है मगर अपने सीने से लगाए हुए बैठा है कोई हम को मा'लूम है 'अख़्तर' कि हमारी ख़ातिर एक आलम को भुलाए हुए बैठा है कोई