तिरा ही नाम काफ़ी है तो ग़ैरों का बयाँ क्यों हो नए किरदार से बोझल ये मेरी दास्ताँ क्यों हो तिरे भी पाँव बढ़ते हैं मिरी बाहें भी फैली हैं तो फिर ये फ़ासला इतना हमारे दरमियाँ क्यों हो अगर है राहबर सादिक़ तो कोई राह दिखलाए जो भटके दर-ब-दर ऐसे वो मीर-ए-कारवाँ क्यों हो हो दिल में ग़म मगर पुर-नम न हो आँखें कभी तेरी छुपा है दिल में जो दरिया वो आँखों से रवाँ क्यों हो ज़रा बज़्म-ए-सुख़न देखे मिरा मेयार-ए-फ़न लोगो दिया है जो ख़ुदा ने फ़न मुझे वो राएगाँ क्यों हो कई कोहसार दर्द-ओ-ग़म के दुनिया में उठाने हैं तो फिर ये हिज्र की शब एक मुझ पर सरगिराँ क्यों हो ये अच्छा है कि सोज़-ए-इश्क़ में चुप-चाप जल जाएँ फ़क़त तश्हीर की ख़ातिर 'सहाब' इतना धुआँ क्यों हो