तेरा ख़याल था कि यूँही बद-गुमान थे अपने भी कुछ उसूल मगर दरमियान थे शाख़ें हर एक रात यूँही चीख़ती रहीं वो फूल ही बिके थे जो ज़ेब-ए-दुकान थे उस ने अज़ल से भींच के रक्खी थी मुट्ठियाँ हाथों की हर लकीर के हम तर्जुमान थे सोचों की मौज मौज बहा ले गई उन्हें साँसों की गर्म रेत पे जिन के मकान थे पोरस के हाथियों के सभी गोल कट गए जज़्बे मिरे ख़ुलूस के रौशन चटान थे जाने वो चोर आ के किधर मुड़ गया 'बहार' दहलीज़ तक तो पाँव के वाज़ेह निशान थे