हब्स-ए-दरूँ पे जिस्म-ए-गिराँ-बार संग था वहशत पे मेरी अरसा-ए-आफ़ाक़ तंग था कुछ दूर तक सहाब-ए-रिफ़ाक़त रहा रफ़ीक़ फिर एहतमाम-ए-बारिश-ए-तीर-ओ-तफ़ंग था सहमी हुई फ़ज़ा-ए-ग़ज़ालाँ के रू-ब-रू जंगल था क़हक़हे थे ख़ुदा था मैं दंग था अब शहर-ए-जुस्तुजू में तिरे बाद कुछ नहीं आबादी-ए-बदन में जो दिल था मलंग था जी ये करे है आज कि तन्हा जिएँ मरें कब मेरे इज़्तिराब का ये रंग-ढंग था हर शाम मुज़्महिल सी सवेरा बुझा बुझा तुझ से परे जो देखा यही एक रंग था