तीरा-बख़्ती जो मुक़द्दर हो जाए फूल सा जिस्म भी पत्थर हो जाए अश्क रुक जाए तो आँखें बे-नूर और ढल जाए तो गौहर हो जाए रूह सहरा की तरह प्यासी है चश्म-बे-आब समुंदर हो जाए रौज़न-ए-शहर पे आँखें हैं धरी ऐ ख़ुदा वा कोई मंज़र हो जाए इश्क़ दुनिया भी अजब दुनिया है हिज्र जो काटे पयम्बर हो जाए दौलत-ए-चश्म-ए-करम मिलते ही ताज वाला भी गदागर हो जाए इश्क़ की लय पे हैं रक़्साँ हम तुम कौन कब जाने क़लंदर हो जाए