तेरे आने की ख़बर देती रही पागल हवा तुझ तलक मेरी हया ले कर गई पागल हवा धूप कच्ची शाम तन्हा और अँधेरों का हुजूम उन में अपना अक्स दिखलाती चली पागल हवा दिन ढले घर लौट आना क़ुफ़्ल करना हसरतें क्यूँ नहीं ये ख़त्म होता सोचती पागल हवा शहर में तेरे हैं तुझ को भूलने की ज़िद बड़ी बे-सबब दिल की बढ़ाती बेकली पागल हवा अब तो ये आलम मगर वो ख़ुश नहीं मैं भी नहीं उस का हर ग़म मुझ से अक्सर बाँटती पागल हवा लब पे आती बात रह जाती लबों के दरमियाँ आम मत कर राज़-ए-दिल कह रोकती पागल हवा हुक्मराँ कहने लगा है चोर है सारे मकीं देखती अहल-ए-वतन की बेबसी पागल हवा