तेरे आँगन में वफ़ाओं का शजर रक्खा था अपने होंटों पे दुआओं का शजर रक्खा था कैसे न याद की खिड़की में ठहरती कल शब मेरे कमरे में सदाओं का शजर रक्खा था याद-ए-जानाँ के परिंदों के सुकूँ की ख़ातिर अपने सीने में वफ़ाओं का शजर रक्खा था जाने क्या सोच के फ़ितरत से मोहब्बत की थी मेरे अज्दाद ने गाँव का शजर रक्खा था मेरी क़िस्मत में मोहब्बत का सितारा ही नहीं मेरी क़िस्मत में जफ़ाओं का शजर रक्खा था वैसे तो प्यार की छाँव से मोहब्बत थी 'दिया' पर कहीं दिल में अनाओं का शजर रक्खा था