था शरीक-ए-बज़्म-ए-ग़म मैं हम-नवाँ कोई नहीं दर्द-ए-दिल को हर्फ़ करने का बयाँ कोई नहीं था ख़लाओं में भटकना तन्हा ही जिस का नसीब था न चंदा संग अपने कहकशाँ कोई नहीं रंग भर दो यूँ कि फैले बिन धनक जिस्म-ए-उफ़ुक़ ख़्वाबों की तस्वीर से बढ़ के ज़बाँ कोई नहीं कितने दीवारों में खोए दर्द-ओ-ग़म के ज़लज़ले आहों से जो ढह गया ऐसा मकाँ कोई नहीं मिल के बस वो पल दो पल अपने ही घर को लौटा है आए जो बसने ज़मीं पर आसमाँ कोई नहीं देखता है हर कली को वो बिखरता बार-बार गुल उगाना छोड़ता पर बाग़बाँ कोई नहीं ख़ाक कर देगा ग़ुबार-ए-वक़्त तेरा ये वजूद जो रुके तेरे लिए वो कारवाँ कोई नहीं