तिरे बग़ैर दिल-ओ-जाँ की ख़ैरियत कैसी जो बादशाह नहीं है तो सल्तनत कैसी वो जिस की नस्ल में ईमान भी तिजारत है बताओ ऐसे क़बीले की मग़्फ़िरत कैसी पनाह धूप के सहरा में ढूँडने वालो जहाँ मकाँ ही नहीं है वहाँ पे छत कैसी हमारा नाम ही जब बाग़ियों में लिक्खा है अदालतों से फिर अपनी मुसालहत कैसी किए हैं ख़ून से जंगल ने दस्तख़त जिस पर लगा हिसाब कि होगी वो शहरियत कैसी