तिरे बग़ैर सुकून-ओ-क़रार को तरसे बहार में भी हम अपनी बहार को तरसे मिला न चैन किसी कल उन्हें भी तड़पा कर क़रार छीन के वो भी क़रार को तरसे वो सामने थे मगर चश्म-ए-शौक़ उठ न सकी दम-ए-विसाल भी दीदार-ए-यार को तरसे तमाम ज़िंदगी गुज़री थी ऐश से जिन की वो बाद-ए-मर्ग चराग़-ए-मज़ार को तरसे बस इक नज़र उन्हें देखा तो ये सज़ा पाई कि उम्र भर के लिए हम क़रार को तरसे किया न वस्ल का वा'दा भी उस सितमगर ने तमाम उम्र शब-ए-इंतिज़ार को तरसे कुछ ऐसी बे-ख़ुदी छाई थी ग़म की ऐ 'साहिर' कि हम शराब भी पी कर ख़ुमार को तरसे