तेरे दर तक आऊँ मैं By Ghazal << कभी सब छीन लेता हूँ कभी न... फिर तिरा शहर तिरी राहगुज़... >> तेरे दर तक आऊँ मैं आईना हो जाऊँ मैं मंज़िल अपनी ढूँडे वो और रस्ता हो जाऊँ मैं उस का कोई ज़िक्र ना हो और रुस्वा हो जाऊँ मैं सब के दा'वे वाजिब हैं किस के हिस्से आऊँ मैं तन्हाई को साथ लिए भीड़ नहीं हो जाऊँ मैं Share on: