तेरे दीवाने ने दीवार में दर खोला है सर-ए-अफ़्लाक नया बाब-ए-क़मर खोला है ढल गया दिन भी वहीं रात ने डेरा डाला थक के रहरव ने जहाँ रख़्त-ए-सफ़र खोला है मेरे चुप रहने पे भी बात वहाँ तक पहुँची राज़-ए-दिल तू ने मगर दीदा-ए-तर खोला है हम कभी तह से समुंदर के हैं मोती लाए कभी परचम सर-ए-मह सीना-सिपर खोला है दर-ए-शबनम मह-ओ-अंजुम हैं कभी जल्वा-फ़रोश किस ने गंजीना ये हर शाम-ओ-सहर खोला है कोहकन बन के कभी हम ने ब-रंग-ए-मजनूँ इश्क़ का बाब ब-अंदाज़-ए-दिगर खोला है हसद-ओ-हिर्स-ओ-हवस ऐसे कई चोर मिले मैं ने चुप-चाप कभी अपना जो घर खोला है सैकड़ों ख़्वाहिशों की नागिनें डसने को बढ़ीं हम ने जब भी दर-ए-गंजीना-ए-ज़र खोला है जिस को देखो वही वारफ़्ता-ए-मंज़िल है यहाँ वाह क्या मकतबा-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र खोला है किस को फ़ुर्सत जो सुने तेरी कहानी 'माहिर' दफ़्तर इक शिकवों का ये तू ने मगर खोला है