तेरे गुलज़ार की ख़ुश्बू से सजा रहता है मेरे दरबार का जो दर है खुला रहता है हर क़दम साथ रहा करती हैं यादें तेरी ध्यान तेरा ही दर-ए-दिल पे धरा रहता है वसवसे यूँ तो डराते हैं अँधेरों से मगर मेरी राहों में भी इक दीप जला रहता है फिर मुख़ालिफ़ को मैं दिलदार बनाऊँ कैसे अब इनायात का अंदाज़ जुदा रहता है इक घराना जो है पहचान मिरे होने की उन रिवायात का एहसास सदा रहता है