तेरे हल्के से तबस्सुम का इशारा भी तो हो ता सर-ए-दार पहुँचने का सहारा भी तो हो शिकवा ओ तंज़ से भी काम निकल जाते हैं ग़ैरत-ए-इश्क़ को लेकिन ये गवारा भी तो हो मय-कशों में न सही तिश्ना-लबों में ही सही कोई गोशा तिरी महफ़िल में हमारा भी तो हो किस तरफ़ मोड़ दें टूटी हुई कश्ती अपनी ऐसे तूफ़ाँ में कहीं कोई किनारा भी तो हो है ग़म-ए-इश्क़ में इक लज़्ज़त-ए-जावेद मगर इस ग़म-ए-दहर से ऐ दिल कोई चारा भी तो हो मय-कदे भर पे तिरा हक़ है मगर पीर-ए-मुग़ाँ इक किसी चीज़ पे रिंदों का इजारा भी तो हो अश्क-ए-ख़ूनीं से जो सींचे थे बयाबाँ हम ने उन में अब लाला ओ नस्रीं का नज़ारा भी तो हो जाम उबल पड़ते हैं मय लुटती है ख़ुम टूटते हैं निगह-ए-नाज़ का दर-पर्दा इशारा भी तो हो पी तो लूँ आँखों में उमडे हुए आँसू लेकिन दिल पे क़ाबू भी तो हो ज़ब्त का यारा भी तो हो आप इस वादी-ए-वीराँ में कहाँ आ पहुँचे मैं गुनहगार मगर मैं ने पुकारा भी तो हो