तू कभी ख़ुद को बे-ख़बर तो कर अपनी जानिब भी इक नज़र तो कर ग़लत-अंदाज़ इक निगाह सही मेरी हस्ती को मो'तबर तो कर वक़्फ़ा-ए-उम्र है कि अर्सा-ए-हश्र इस मसाफ़त को मुख़्तसर तो कर रहबरी का भरम भी रख लूँगा मुझ को मानूस-ए-रहगुज़र तो कर आइना आइना तिरा परतव आइना आइना गुज़र तो कर मैं ने जिस तरह ज़ीस्त काटी है एक दिन ही सही बसर तो कर वक़्त कोह-ए-गिराँ सही 'मोहसिन' आब-ए-जू की तरह सफ़र तो कर