तिरे जुनून-ए-मोहब्बत का कौन महरम है अभी ख़िरद के चराग़ों में रौशनी कम है तग़य्युरात का मरकज़ अगरचे आलम है न हुस्न कम है कहीं से न दिलकशी कम है न ज़िंदगी की हवस है न मौत का ग़म है तिरे फ़िराक़ का आलम अजीब आलम है ख़ुदी कहाँ कि मोहब्बत में अब ये आलम है नहीं है क़ुर्ब-ए-दर-ए-दोस्त फिर भी सर ख़म है ये इज़्तिराब ये तन्हाइयाँ ये सोज़-ओ-गुदाज़ शबाब आलम-ए-तिफ़्ली की शाम-ए-मातम है किसे ये फ़िक्र है 'नय्यर' वफ़ूर-ए-मस्ती में शराब शीशे में कम है कि ज़िंदगी कम है