उन्हें हम सालिक-ए-राह-ए-फ़ना ऐ दिल समझते हैं जो अपने हर-नफ़स को आख़री मंज़िल समझते हैं उसे हम दौलत-ए-कौनैन का हासिल समझते हैं जिसे सब दूर कहते हैं जिसे सब दिल समझते हैं वही कुछ सज्दा-हा-ए-शौक़ का हासिल समझते हैं जो उस के क़ुर्ब को फ़िरदौस-ए-जान-ओ-दिल समझते हैं निशाँ है मेरे सज्दे का जो इक राह-ए-मोहब्बत में उसी को सब चराग़-ए-सरहद-ए-मंज़िल समझते हैं न वो क़ातिल न उन की चश्म-ओ-मिज़्गान-ओ-नज़र क़ातिल हम अपने दिल को ख़ुद अपने लिए क़ातिल समझते हैं कोई इस इर्तिबात-ए-बाहमी के राज़ क्या जाने जिसे वो तीर कहते हैं उसे हम दिल समझते हैं वो इक हल्का सा परतव है मिरे दाग़-ए-मोहब्बत का जिसे अहल-ए-जहाँ 'नय्यर' मह-ए-कामिल समझते हैं