तेरे ख़याल के दीवार-ओ-दर बनाते हैं हम अपने घर में भी तेरा ही घर बनाते हैं बजाए यौम-ए-मलामत रखा है जश्न मिरा मिरे भी दोस्त मुझे किस क़दर बनाते हैं बिखेरते रहो सहरा में बीज उल्फ़त के कि बीज ही तो उभर कर शजर बनाते हैं बस अब हिकायत-ए-मज़दूरी-ए-वफ़ा न बना वो घर उन्हें नहीं मिलते जो घर बनाते हैं तिरा भी नाम छपा वज्ह-ए-मर्ग-ए-आशिक़ में ये देख बे-ख़बरे यूँ ख़बर बनाते हैं वो क्या ख़ुदा की परस्तिश करेंगे मेरी तरह जो एक बुत भी बहुत सोच कर बनाते हैं कहा ये किस ने कि है क़स्र-ए-इश्क़ रहन-ए-शबाब बनाने वाले इसे उम्र-भर बनाते हैं तू आए तो तिरी कारी-गरी की लाज रहे हम आज दश्त में रह कर भी घर बनाते हैं मिली न फ़ुर्सत-ए-आराइश-ए-बयाबाँ भी कि हम यहाँ भी तिरे बाम-ओ-दर बनाते हैं अदू हवाओ कराची के लोग हारे नहीं जो घर गिराओ वो बार-ए-दिगर बनाते हैं अबु-ज़बी में हमेशा नई ग़ज़ल 'आली' ये लोग ही तो तुझे मो'तबर बनाते हैं