तेरे कूचे से न ये शेफ़त्गाँ जाते हैं झूट कहते हैं कि जाते हैं कहाँ जाते हैं आमद-ओ-रफ़्त न पूछ अपनी गली की हम से आते हैं हँसते हुए करते फ़ुग़ाँ जाते हैं काबा ओ दैर में देखे हैं उसी का जल्वा कुफ़्र ओ इस्लाम में कब दीदा-वराँ जाते हैं नहीं मक़्दूर कि पहुँचे कोई उस तक पर हम जूँ निगह दीदा-ए-मर्दुम से निहाँ जाते हैं गर है दीदार-तलब साफ़ कर अपने दिल को रू-ब-रू उस के तो आईना-दिलाँ जाते हैं जज़्ब तेरा ही अगर खींचे तो पहुँचें वर्ना तुझ को सुनते हैं परे वाँ से जहाँ जाते हैं आह करता है ख़राश उन का दिलों में नाला कौन ये क़ाफ़िले में नाला-ज़नाँ जाते हैं जी में है कहिए ग़ज़ल और मुक़ाबिल उस के गुहर इस बहर में मज़मूँ के रवाँ जाते हैं तुझ को 'बेदार' रखा पीछे गिराँ-बारी ने राह-रौ जो हैं सुबुकसार दवाँ जाते हैं