तेरे मेरे घर की हालत बाहर कुछ और अंदर कुछ जैसे हो फूलों की रंगत बाहर कुछ और अंदर कुछ बाहर बाहर ख़ामोशी है अंदर अंदर हंगामा कैसी है ये जिस्म की हिद्दत बाहर कुछ और अंदर कुछ लफ़्ज़ है कुछ और मा'नी कुछ हर मिसरे में फ़नकार है ग़म ऐसे वैसे शे'र की लज़्ज़त बाहर कुछ और अंदर कुछ क्यूँ न आँख में आँसू आए क्यूँ न दिल को चोट लगे अपने अपने देस की हालत बाहर कुछ और अंदर कुछ कोई न शायद जान सकेगा सूरज की मतवाली चाल शहर में क्यूँ है धूप की शिद्दत बाहर कुछ और अंदर कुछ गहरी नज़र वालों में 'अख़्तर' रौशन है पहचान अलग फिर भी क्यूँ है आप की इज़्ज़त बाहर कुछ और अंदर कुछ