तिरे नाज़ उठाने को जी चाहता है मुक़द्दर बनाने को जी चाहता है फ़ुग़ाँ लब पे लाने को जी चाहता है क़यामत उठाने को जी चाहता है नहीं मर के भी भूलना जिन को मुमकिन उन्हें भूल जाने को जी चाहता है तुम्हें देख कर आज जान-ए-तमन्ना मोहब्बत जताने को जी चाहता है वो ग़म जिस की लज़्ज़त है मालूम दिल को वो ग़म फिर उठाने को जी चाहता है ज़रा बिजलियों को तो आवाज़ देना नशेमन बनाने को जी चाहता है ये दिल आज़माइश में ठहरे न ठहरे मगर आज़माने को जी चाहता है बहारें कहाँ रास आएँगी मुझ को ख़िज़ाँ को मनाने को जी चाहता है ग़म-ए-ताज़ा की है ये तम्हीद शायद मिरा मुस्कुराने को जी चाहता है घड़ी भर यूँ ही रूठ जाओ ख़ुदारा तुम्हें फिर मनाने को जी चाहता है तुम्हारी इन आँखों की गहराइयों में मिरा डूब जाने को जी चाहता है नज़र का ये पर्दा जो हाइल है अब तक उसे 'सेहर' उठाने को जी चाहता है