तेरे साथ चलती हूँ इक जहान जाता है गर गुरेज़ करती हूँ तेरा मान जाता है दर्द के हवाले से कितना बा-ख़बर है वो मेरे दिल की बातों को कैसे जान जाता है धूप ही तो मिलती है ज़र्द ज़र्द मौसम में वहशतों के सहरा में साएबान जाता है ख़ाक-ए-दिल तुझे ले कर अब कहाँ कहाँ जाऊँ गर ज़मीं की होती हूँ आसमान जाता है हिज्र के समुंदर से मैं गुज़र के आई हूँ तेरे अब न मिलने से मेरा मान जाता है जब रविश पे चलती हूँ मैं अदा-ए-वहशत की फूल रूठ जाते हैं गुल्सितान जाता है बज़्म में उसे 'रूमी' जब भी दफ़अ'तन देखूँ ज़ब्त ही नहीं दिल से हर गुमान जाता है