तीर-ए-अबरू जब कमाँ तक आ गए उन की ज़द में जिस्म-ओ-जाँ तक आ गए दाग़ सीरत पर लगे थे और हम बस्ती-ए-सूरत-गराँ तक आ गए रफ़्ता रफ़्ता कम हुआ ज़ब्त-ए-अलम दर्द-ए-जाँ मेरी ज़बाँ तक आ गए हम को भी इक गुल-बदन की चाह थी हम भी कोई गुल्सिताँ तक आ गए मंज़िल-ए-मक़्सूद भी दिखने लगी हम जो मीर-ए-कारवाँ तक आ गए याद आया जब हमें बचपन बहुत हम खिलौनों की दुकाँ तक आ गए क़ातिलों के पास थी दौलत अपार उन के हक़ में हुक्मराँ तक आ गए मौसम-ए-गुल सिर्फ़ यादों में है अब उम्र गुज़री हम ख़िज़ाँ तक आ गए