तेरी आँखों का अजब तुर्फ़ा समाँ देखा है एक आलम तिरी जानिब निगराँ देखा है कितने अनवार सिमट आए हैं इन आँखों में इक तबस्सुम तिरे होंटों पे रवाँ देखा है हम को आवारा ओ बेकार समझने वालो तुम ने कब इस बुत-ए-काफ़िर को जवाँ देखा है सेहन-ए-गुलशन में कि अंजुम की तरब-गाहों में तुम को देखा है कहीं जाने कहाँ देखा है वही आवारा ओ दीवाना ओ आशुफ़्ता-मिज़ाज हम ने 'जालिब' को सर-ए-कू-ए-बुताँ देखा है