तेरी इक बात पे यूँ दिल से तराने निकले जैसे उम्मीद के जुगनू के ठिकाने निकले क्या हुआ तेरा करम जो न हुआ गर मुझ पे मेरी उल्फ़त के घरौंदे से ख़ज़ाने निकले इतना आसाँ न था उन से मिरा दूरी रखना किस तरह अज़्म को हम अपने निभाने निकले हम ने जाना था मोहब्बत का सिला होगा ग़म फिर भी क्या सोच के हम उम्र गँवाने निकले उन के आने की हो आहट तो मुझे लगता है मेरी तन्हाई सराबों से सजाने निकले जब भी एहसास-ए-मसर्रत हुआ इक पल को तभी नींद से दर्द को मेरे वो जगाने निकले जो न कहना था कभी आज वो अशआ'र बनाएँ फिर ये मा'ज़ूर ग़ज़ल सब को सुनाने निकले तुम से जो हो न सका हम भी कहाँ थे माहिर इश्क़ की राह पे नाकाम सियाने निकले वास्ता इतना ही रहता है 'सबा' उन से ये चश्म-ए-पुर-नम को सितारों से सजाने निकले