नज़र जब हम पे कोई बार बार डालेगा ये इल्तिफ़ात तो बे-मौत मार डालेगा मिरे लिए किसी ख़ंजर की क्या ज़रूरत है मुझे तो ख़ुद मिरा एहसास मार डालेगा नहीं है वक़्त सदाक़त की बात मत कीजिए ज़माना दार-ओ-रसन से गुज़ार डालेगा जो असलियत है छुपाने से छुप नहीं सकती तू आईना पे कहाँ तक ग़ुबार डालेगा है वक़्त इस लिए तेरा दिमाग़ अर्श पे है बदल गया तो ज़मीं में उतार डालेगा ये सोच कर मिरे हमराह चल सको तो चलो ज़माना राह-ए-मोहब्बत में ख़ार डालेगा सँवारता हूँ 'अज़ीज़' आज किस को फूलों से वो शख़्स कल मिरे काँटों के हार डालेगा