तेरी जफ़ा हुई कि जहाँ का ग़ज़ब हुआ हम पर तो जो सितम भी हुआ बे-सबब हुआ इस साअ'त-ए-सईद को क्या नाम दीजिए इंसाँ असीर-ए-वक़्त के ज़िंदाँ में जब हुआ शोला-सिफ़त हैं रक़्स में अपने चमन के फूल इस आलम-ए-बहार में ये क्या ग़ज़ब हुआ शायद यही मज़ाक़-ए-तलब की है इंतिहा दुनिया-ए-रंग-ओ-बू में भी दिल बे-तलब हुआ मुंसिफ़ को मस्लहत की ज़बाँ रास आ गई गो फ़ैसला हुआ मगर इंसाफ़ कब हुआ उस को नसीब हो न सका रिश्ता-ए-ख़ुलूस जो क़ाइल-ए-क़ज़िया-ए-हसब-ओ-नसब हुआ जारी है एक तीरगी-ओ-रौशनी की जंग जब से शुऊर-ए-सिलसिला-ए-रोज़-ओ-शब हुआ हद-ए-निगाह तक कहीं शो'ले कहीं धुआँ ये ख़ाक-ओ-ख़ूँ का खेल गुलिस्ताँ में कब हुआ इस हादसे पे आप का जो तब्सिरा भी हो मैं आश्ना-ए-महफ़िल-ए-ऐश-ओ-तरब हुआ कैसे हो तुम को लज़्ज़त-ए-आज़ाद जाँ-नसीब दुश्वार मरहलों से गुज़रना ही कब हुआ कितने अज़ीम लोग तह-ए-ख़ाक हो गए तू भी हुआ जो 'लैस' तो फिर क्या अजब हुआ