तेरी ख़ातिर ये फ़ुसूँ हम ने जगा रक्खा है वर्ना आराइश-ए-अफ़कार में क्या रक्खा है है तिरा अक्स ही आईना-ए-दिल की ज़ीनत एक तस्वीर से एल्बम को सजा रक्खा है बर्ग-ए-सद-चाक का पर्दा है शगुफ़्ता गुल से क़हक़हों से कई ज़ख़्मों को छुपा रक्खा है अब न भटकेंगे मुसाफ़िर नई नस्लों के कभी हम ने राहों में लहू अपना जला रक्खा है हम से इंसाँ की ख़जालत नहीं देखी जाती कम-सवादों का भरम हम ने रवा रक्खा है किस क़यामत का है दीदार तिरा वादा-शिकन दिल-ए-बेताब ने इक हश्र उठा रक्खा है कोई मुश्किल नहीं पहचान हमारी 'फ़ारिग़' अपनी ख़ुशबू का सफ़र हम ने जुदा रक्खा है